GULKAND - 1 in Hindi Moral Stories by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | गुलकंद - पार्ट 1

Featured Books
  • इश्क दा मारा - 25

    राजीव की हालत देख कर उसे डैड घबरा जाते हैं और बोलते हैं, "तु...

  • द्वारावती - 71

    71संध्या आरती सम्पन्न कर जब गुल लौटी तो उत्सव आ चुका था। गुल...

  • आई कैन सी यू - 39

    अब तक हम ने पढ़ा की सुहागरात को कमेला तो नही आई थी लेकिन जब...

  • आखेट महल - 4

    चारगौरांबर को आज तीसरा दिन था इसी तरह से भटकते हुए। वह रात क...

  • जंगल - भाग 8

                      अंजली कभी माधुरी, लिखने मे गलती माफ़ होंगी,...

Categories
Share

गुलकंद - पार्ट 1

प्रिय पाठकों

मैं, एक लेखिका, श्रुत कीर्ति अग्रवाल, आज पहली बार आपके साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से नहीं, स्वयं अपने-आप को माध्यम बना आपके समक्ष हूँ। अभी तक मुझे लगता था कि अगर मैं अपनी सारी बातें अपने पात्रों के द्वारा आपसे कह ही सकती हूँ तो स्वयं को सामने लाने की आवश्यकता भी क्या है? पर पिछले कुछ दिनों में लेखकों के लिये आयोजित कुछ कक्षाओं ने मुझे यह सिखाया कि अगर आप अपने पाठकों से जुड़ाव चाहते हैं तो उनके साथ एक संवाद की स्थिति बना कर रखनी पड़ेगी। उनके मन के भाव समझने पड़ेंगे, प्रश्नों के जवाब देने होंगे।

मैं स्वभाव से शायद अंतर्मुखी और शर्मीली हूँ और अक्सर स्वयं बारे में बातें करने में खुद को जरा असहज पाती हूँ अतः इस तरह संवाद बनाना मेरे लिये बहुत आसान नहीं था पर हाँ, अब जो ऐसा करने की कोशिश कर रही हूँ, कुछ नया करने का रोमांच जरूर महसूस हो रहा है। अगर आपने मेरे प्रयासों को पसंद किया और मैं आपके दिल तक पंहुचने में सफल हो गई तो सचमुच, आनंद आ जाएगा, उत्साह बढ़ेगा और संकोच त्याग, मैं बार-बार आपके सम्मुख आती रहूँगी।

अपनी कलम के माध्यम से मैं हमेशा कुछ ऐसी समस्याओं को छूना चाहती हूँ जिनपर बहुत कुछ लिखा जाने के बावजूद अभी बहुत कुछ अनकहा बच रहा हो। हर किसी की तरह मेरे मन में भी अपने सामाजिक ताने-बाने को लेकर सैकड़ों प्रश्न उठते हैं जिनका समाधान अगर आसानी से नहीं मिलता तो कितनी बार रात-रात भर जाग कर, सीलिंग निहारते सोचती रहती हूँ, पता नहीं कब उठ-उठकर नोट्स लिखती हूँ और कितनी ही बार अपनी ही उस खोज से असंतुष्ट हो उसे काट-कूट कर फेंक भी देती हूँ। मेरे विचार मुझे परेशान करते रहते हैं और मैं अंदर ही अंदर पक्ष और विपक्ष दोनों के तर्क जुटा वादविवाद में व्यस्त रहती हूँ।

इस बार की समस्या थी, सदियों से बदनाम सास-बहू के बीच का रिश्ता! विश्वास करिये, जिस तरह दैनिक जिंदगी में इस रिश्ते के समीकरणों को सुलझाना आसान काम नहीं है, साहित्य भी उतना ही असमंजस में है। हर कोई मुझे इस समस्या के एक ही पहलू को लेकर बात करता दिखाई देता है और मैं परेशान हो जाती हूँ कि समग्र रूप में कोई इसे देखता क्यों नहीं? बहू के परिप्रेक्ष्य में देखिये तो सास कर्कशा है, जली-कटी सुनाती है, बहू से अनंत अपेक्षाएँ रखती है और उससे बढ़कर दूसरी कोई खलनायिका नहीं होती। दूसरी तरफ जरा वरिष्ठ लोगों पर नजर डालिये तो बहू वह जीव है जो सास को भरपेट खाना नहीं देती, बेटे से दूर कर देती है और आजकल तो हर समय वृद्धाश्रम में पँहुचा देने के अपराध की चर्चा होती रहती है। मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि इतनी दूरी, इतना वैमनस्य और इतना अविश्वास क्यों है इस रिश्ते में? जान लगाकर अपने बेटे को पालने-पोसने और पढ़ा-लिखा कर इंसान बनाने वाली माँ, अक्सर बड़े साधों के साथ लाई जाने वाली बहू के साथ इतना खराब व्यवहार क्यों करने लगती है? फिर वही सास, कुछ वर्ष बीतते न बीतते इतनी लाचार और बहू ऐसी रणचंडी कैसे हो जाती है, क्यों हो जाती है? इन सबमें बेटे की भूमिका अक्सर दो पाटों में पिसते इंसान की सी दिखाई दिया करती है पर ऐसा क्यों? इस रिश्ते में बेटा तो इकलौती ऐसी कड़ी होता है जो इन दोनों ही औरतों को जितनी अच्छी तरह जानता-समझता है उतना कोई और उन्हें समझ ही नहीं सकता। एक अंजान माहौल से आई, पर नितांत अपनी हो चुकी उस पत्नी और जन्म से जानी-पहचानी अपनी माँ के बीच सहिष्णुता का वातावरण बनाना तो उस पुरूष की जिम्मेदारी होनी चाहिए न? पर हमारा समाज उससे इसकी अपेक्षा क्यों नहीं रखता? कहा जाता है कि वह चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा है। उसकी असफलता पर उसे जिम्मेदार ठहराने के स्थान पर आप उससे सहानुभूति क्यों रखने लगते हैं?

पर क्या असुरक्षा और अविश्वास से बने इस रिश्ते की गिरहें इतनी ही आसानी से सुलझ सकती हैं? सिर्फ दो अलग-अलग पीढ़ियों की औरतों के बीच एक आदमी इस गिरह को सुलझा नहीं पाएगा। इसमें तो पीढ़ियाँ होम हो जाएँगीं। कौन कब सही है कौन कब गलत है ये बहस सारी जिंदगी चलने के बाद भी सुलझने वाली नहीं है। कटु सत्य बस यह है कि कलह-कलेश को रोक कर रखने के लिये दोनों औरतों में से कोई एक बर्दाश्त करेगी और दूसरी अपनी ताकत दिखाएगी? पर यह तो कोई हल नहीं हुआ! अगर पहले दिन, पहली बार ही बर्दाश्त करने से इंकार नहीं किया तो यह अगले की आदत में आ जाएगा? पर इनकार तो अपने आप में बे-अदबी होता है, और अक्सर उसे ही बर्दाश्त करना कठिन हो जाता है। और जब
किसी एक में भी सहन करने की ताकत न हो.. फिर कितने घर बचेंगें? हमारी समाज व्यवस्था का क्या होगा? अकेले जीने को मजबूर पति-पत्नी.. बँटे हुए प्यार पर पलते बच्चे.. अलग-थलग पड़े बुजुर्ग.. भले आज के समय में अक्सर यही हो रहा है पर कितने लोग सचमुच चुनना चाहते हैं ऐसा विकल्प? मन जिंदगी भर को एक अपराध ग्रंथि से मुक्त कहां हो पाता है?

वैसे अपवाद भी बहुत सारे हैं। कई बार, बड़ी ही खूबसूरती से, सफलतापूर्वक निभ भी जाता है यह सास और बहू का रिश्ता पर वहां बहुत ऊँचे दर्जे की समझदारी की माँग होती है.. क्योंकि मन तब भी अपने अंदर में बहुत से समझौते, बहुत से डर तो छिपाये ही रहता है कि किसी भी नये इन्सान को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेना इतना आसान तो नहीं हो सकता।

अपने असमंजस को आपके सामने रखने से पहले उसमें मिलानी होती है रोचकता.. पात्र गढ़ती हूँ, घटनाएँ गढ़ती हूँ और फिर पाठक बन कर सौ-सौ बार उसे पढ़ती हूँ, गलतियाँ निकालती हूँ.. तब भी सबकुछ कहाँ कह पाती हूँ, अपूर्णता तो रह ही जाती है। पर इस बार सोचा, यूं ही नहीं रख दूंगी इसे आपके समक्ष... सो आज मैं लेकर आई हूँ टुह-टुह लाल, देसी गुलाबों की खुशबू और उसमें पिघलती मिठास.. यानी कि गुलकंद! मैंने परोस दिया है अब आगे आपकी मर्जी.. मीठे पान में लगाइये, मिठाइयों पर सजाइये या यूँ ही एक चम्मच मुँह में रख लीजिये.. मेरा तो वादा बस यही है कि जब भी यह आपकी जिह्वा को स्पर्श करेगा, तन और मन दोनों को मिठास, खुशबू और ठंढ़क से सराबोर कर देगा।

तो प्रस्तुत है 'गुलकंद'! कृपया पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजिये क्योंकि आपकी इन प्रतिक्रियाओं की मैं बेसब्री से प्रतीक्षा जो कर रही हूँ।

धन्यवाद

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com